एक जमाने में पत्रकारिता को जीने वाले और समझने वाले खादी का कुरता पहने , चप्पल पहने , आंखों में चश्मा लगाए , एक झोले में ख़बरों के साथ विचारों को लेकर सीना तानकर चलते हुए दिख जाया करते थे । देखने से ही लगता था की ये तो पत्रकार महोदय हैं । तब वे समाज का आइना कहे जाते थे । तब के दोर में पत्रकारिता को विश्व और समाज का चोथा स्थम्भ कहने में कोई बुराई नज़र नही आती थी । किसी पत्र -पत्रिका में छपी ख़बर से जन आन्दोलन हो जाया करते थे । सरकारें गिर जाया करती थीं । समाज परिवर्तित हो जाया करता था । रोड पर न्यूज़ पेपर बांटने वाला होक्कर भी ख़बरों की महत्ता को समझकर न्यूज़ की हेडलाइन को चीख -चीख कर पढ़ता था और जन समूह उस अखबार को खरीदने के लिए टूट पड़ता था । आख़िर कहाँ गए वो दिन ? क्यों बदल गई वो सोच ? खादी का कुरता कहाँ खो गया ? आज आइना हमें आँखों से आँखें मिलाने क्यों नही देता ? क्योंकि अब पत्रिकारिता उस के पास नही रही जिनके पास विचारों का तो भण्डार है लेकिन पैसा नहीं है। जिनके पास ख़बर लिखने के लिए हाथों में दम तो है पर वो पेपर नहीं जो उनकी ख़बर छाप सके । शासन और प्रशासन की जी हुजूरी करने वाले पत्रकारों के लिए तो उनका ख़ुद का फाउन्टेन पेन अपने कोख से स्याही निकालते घबराता होगा । दिया बुझने वाला है - फिर जला दो इस दिए को । तेरा कलम कह रहा है-बदल दो बदली सोच को ।
Monday 30 March 2009
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