Monday 30 March 2009

आज की पत्रकारिता


एक जमाने में पत्रकारिता को जीने वाले और समझने वाले खादी का कुरता पहने , चप्पल पहने , आंखों में चश्मा लगाए , एक झोले में ख़बरों के साथ विचारों को लेकर सीना तानकर चलते हुए दिख जाया करते थे । देखने से ही लगता था की ये तो पत्रकार महोदय हैं । तब वे समाज का आइना कहे जाते थे । तब के दोर में पत्रकारिता को विश्व और समाज का चोथा स्थम्भ कहने में कोई बुराई नज़र नही आती थी । किसी पत्र -पत्रिका में छपी ख़बर से जन आन्दोलन हो जाया करते थे । सरकारें गिर जाया करती थीं । समाज परिवर्तित हो जाया करता था । रोड पर न्यूज़ पेपर बांटने वाला होक्कर भी ख़बरों की महत्ता को समझकर न्यूज़ की हेडलाइन को चीख -चीख कर पढ़ता था और जन समूह उस अखबार को खरीदने के लिए टूट पड़ता था । आख़िर कहाँ गए वो दिन ? क्यों बदल गई वो सोच ? खादी का कुरता कहाँ खो गया ? आज आइना हमें आँखों से आँखें मिलाने क्यों नही देता ? क्योंकि अब पत्रिकारिता उस के पास नही रही जिनके पास विचारों का तो भण्डार है लेकिन पैसा नहीं है। जिनके पास ख़बर लिखने के लिए हाथों में दम तो है पर वो पेपर नहीं जो उनकी ख़बर छाप सके । शासन और प्रशासन की जी हुजूरी करने वाले पत्रकारों के लिए तो उनका ख़ुद का फाउन्टेन पेन अपने कोख से स्याही निकालते घबराता होगा । दिया बुझने वाला है - फिर जला दो इस दिए को । तेरा कलम कह रहा है-बदल दो बदली सोच को ।

7 comments:

  1. शासन और प्रशासन की जी हुजूरी करने वाले पत्रकारों के लिए तो उनका ख़ुद का फाउन्टेन पेन अपने कोख से स्याही निकालते घबराता होगा ।
    बात तो सही है,पर यह वक्तभी बदलेगा बस आप दो में से एक राष्ट्रीय पार्टी को ही वोट दें और वोट डालना न भूलें


    शासन और प्रशासन की जी हुजूरी करने वाले पत्रकारों के लिए तो उनका ख़ुद का फाउन्टेन पेन अपने कोख से स्याही निकालते घबराता होगा ।http://gazalkbahane.blogspot.com/ कम से कम दो गज़ल [वज्न सहित] हर सप्ताह
    http:/katha-kavita.blogspot.com दो छंद मुक्त कविता हर सप्ताह कभी-कभी लघु-कथा या कथा का छौंक भी मिलेगा
    सस्नेह
    श्यामसखा‘श्याम

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  2. ब्लोगिंग जगत में स्वागत है
    लगातार लिखते रहने के लि‌ए शुभकामना‌एं
    पत्रकारिता पैसों का खेल रह गया है ।

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  3. मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
    मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
    यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
    तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
    जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
    वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
    मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
    काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
    मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
    यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
    अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
    दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
    @कवि दीपक शर्मा
    http://www.kavideepaksharma.co.in (http://www.kavideepaksharma.co.in/)
    इस सन्देश को भारत के जन मानस तक पहुँचाने मे सहयोग दे.ताकि इस स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सके और आवाम चुनाव मे सोच कर मतदान करे.
    काव्यधारा टीम

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  4. Sahi hain vichar aapke. Swagat Blog Parivar mein.

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  5. ek joshili qalam joshili hi rahe ....
    uska ye junun taumra zinda rahe..
    bhasha par achhi pakad hai.. awaz hai de ke dekho..kabhi to kanon tak pahunchegi.
    http://naiqalam.blogspot.com

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  6. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत.
    पत्रकारिता के बारे में आपके विचारों से पूर्णतः सहमत

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